Wednesday 12 September 2012

ज्वालामुखी (एक गरम जोश काव्य) (ख) आग का खेल(३) गरम आग पाइये






! गरम आग पाइये !





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! बारूदी ढेर पर 


हमारे निवास !



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आज हम कैसे करें जीवन की आस ?



बारूदी ढेर पर हम,आरे निवास ||



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चाहे हों गाँव के,या शहरी लोग |



‘मीठे कलेवर’ में हैं 'ज़हरी लोग' ||



सबके दोधारी हैं तीखे व्यवहार |



छल रहे हैं हमें सबके विशवास |



बारूदी ढेर पर हमारे निवास ||१||







चारों ओर धुआँ उठा,है पवन गरम |


चैन-अमन से मिले,कहाँ ताज़ा दम !!


सुलग रहा कहीं, कहीं ‘मलिन हुआ’‘प्यार’ |


‘कामना’-‘भावना’ की घुट रही साँस |


बारूदी ढेर पर हमारे निवास ||२||




है हमको दर्द और टीस भरा रंज |


हगक्योंकि ‘दया-भाव’भी हो गए ‘शतरंज ||


‘सान्त्वना के बोल’ आज हुये ‘व्यापार’ |


कहें करुण कथा निज आज किसके पास !


बारूदी ढेर पर हमारे निवास ||३||




हर ओर आदमी के सर चढी ‘मौत’ |


‘डसने’ ‘इंसानियत’ को आगे बढ़ी मौत ||


हम बचाव के लिये,रहे यों पुकार |


किन्तु स्वर दबे ज्यों गले पड़ी फांस |


बारूदी ढेर पर हमारे निवास ||४||



 


कट रहे 'धरा के केश औ नाखून'  |


‘नासमझ इंसान’ का देखिये ‘जुनून’ ||

दे हमें ‘तान भरे मीठे उपहार’ |

‘बांसुरी’ के लिये कहाँ मिले ‘बाँस’ !

बारूदी ढेर पर हमारे निवास ||५|| 


  

  

1 comment:

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