Thursday 27 December 2012

हृदय में जली हुई ज्वाला !(एक विरोधाभास) (दिनांक १६दिसंबर २०१२ को घटित सामूहिक बलात्कार की समाज को करवट बदल कर जन-क्रान्तिको मजबूर कर देने वाली घटना के संदर्भ में विशेष रचना




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एक यथार्थ जो सबने देखा,सूना,पढ़ा ! 
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बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||

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‘पीड़ा भरी कराह’ उठ रही, ‘दर्द भरी’ है ‘सिसकी’ |

ऐसी, ‘अमन की देवी’ पर, ‘बदनज़र’ पड़ी है किसकी ??

‘धीरे धीरे ‘आँसू’ रिसते, ‘नयन’ हो गये गीले-

‘मानवता’ को ‘दर्द’ हुआ ज्यों, दुखा हो कोई ‘छाला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||१||

 

‘लाज की हिरणी’ तड़फ़ तडफ कर, लेती ‘अन्तिम साँसें’ |

डसने को ‘वासना की नागिन’, आई इसे कहाँ से ??

‘संयम’ टूट गया, ‘धीरज’ ने अपनी ‘करवट’ बदली –

लिख न जाये ‘इतिहास’ में ‘खूनी पृष्ठ कोई काला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||२||

 

अब नारी की ‘सहन-शक्ति’ की ‘बन्धन-डोरी’ टूटी |

‘अबला’ है वह, ‘बात पुरानी’ हुई है सारी झूठी ||

पाकर ‘अतिशय चोट’ हिली है इस ‘धरती’ की काया’-

लगता है, अब ‘प्रलय’ यहाँ पर निश्चय आने वाला ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’, ’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘अग्नि’ को  पाला ||३||

 
‘आग के दरिया’ ने सींचे है, ‘खिले बगीचे सारे’ |

‘चिनगारी’ बन गयीं हैं ‘कलियाँ’, औ “प्रसून” ‘अंगारे’ ||

इस ‘विकास के दौर’ में अन्तर ‘बात’ समझने में है –

हम ने इस को ‘लपट’ कहा है, तुमने कहा ‘उजाला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||४||

 

‘पुरखों ने जो बाग  यहाँ थे सुन्दर कई लगाये |

इनमें धोखे से ‘विष वाले’, “प्रसून” कुछ उग आये ||

इनके ‘ज़हरीलेपन’ से हम कितने हुये विकल हैं-

जिसने इनका ‘स्वाद’ चखा है, ‘काल’ का हुआ ‘निवाला’ ||

बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !

‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||५||


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