Sunday 30 September 2012

ज्वालामुखी (एक गरम जोश काव्य) (ख) आग का खेल (४) धधक रहा है कोना कोना ==================


धधक रहा है कोना कोना
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‘रस-प्रवाह’अब लगा ठहरने,
जल-जल पूरी उम्र है काटी|
निष्ठुर बन कर खेल रही है, ‘आग’,‘नाश का खेल घिनौना’||
धधक रहा है कोना कोना||
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कहीं उदर में‘जठर अनल’है | 
कहीं हृदय में‘काम-अनल’है ||
करती कहीं‘वासना’छल है |
‘हिंसा’जलती कहीं प्रबल है ||
लगी‘प्रकृति’में‘ज्वाला’भरने|
‘शान्त चिन्तन की परिपाटी’-
‘एक दाह-दुःख’झेल रही है ||
कितना दुष्कर जगना सोना|
पूज रहा ‘युग’,‘चाँदी-सोना’||
निष्ठुर बन् कर खेल रही है,
‘आग’,‘नाश का खेल घिनौना’||
धधक रहा है कोना कोना||१||.


 

झुलसा‘इच्छाओं का कमल’है|
तप्त हुआ‘नयनों का जल’है||
दूषित हुआ‘प्रेम-काजल’है ||
लगी‘नियति’है हर सीख हरने|
इसने‘विप्लव-घड़ियाँ’बाँटीं-
तन पर ‘काँटे’ झेल रही है ||
‘प्रीति’चाहती है बस रोना|
कहती है ‘अब ज़ुल्म करो ना ||
‘जिन्दगी’इसको‘जेल’हुई है–
इसमें इतने‘दर्द’भरो ना||
धधक रहा है कोना कोना||२||.


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