धधक रहा है कोना कोना
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‘रस-प्रवाह’अब
लगा ठहरने,
जल-जल
पूरी उम्र है काटी|
निष्ठुर
बन कर खेल रही है, ‘आग’,‘नाश का खेल घिनौना’||
धधक रहा है कोना कोना||
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कहीं
उदर में‘जठर अनल’है |
कहीं
हृदय में‘काम-अनल’है ||
करती
कहीं‘वासना’छल है |
‘हिंसा’जलती
कहीं प्रबल है ||
लगी‘प्रकृति’में‘ज्वाला’भरने|
‘शान्त
चिन्तन की परिपाटी’-
‘एक
दाह-दुःख’झेल रही है ||
कितना
दुष्कर जगना सोना|
पूज
रहा ‘युग’,‘चाँदी-सोना’||
निष्ठुर
बन् कर खेल रही है,
‘आग’,‘नाश का खेल घिनौना’||
‘आग’,‘नाश का खेल घिनौना’||
धधक
रहा है कोना कोना||१||.
झुलसा‘इच्छाओं का कमल’है|
झुलसा‘इच्छाओं का कमल’है|
तप्त हुआ‘नयनों का जल’है||
दूषित हुआ‘प्रेम-काजल’है ||
लगी‘नियति’है हर सीख हरने|
इसने‘विप्लव-घड़ियाँ’बाँटीं-
तन पर ‘काँटे’ झेल रही है ||
‘प्रीति’चाहती है बस रोना|
‘प्रीति’चाहती है बस रोना|
कहती
है ‘अब ज़ुल्म करो ना ||
‘जिन्दगी’इसको‘जेल’हुई है–
इसमें
इतने‘दर्द’भरो ना||
धधक रहा है कोना कोना||२||.
धधक रहा है कोना कोना||२||.
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