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एक यथार्थ जो सबने देखा,सूना,पढ़ा !
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बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !
‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||
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‘पीड़ा भरी कराह’ उठ रही, ‘दर्द भरी’ है ‘सिसकी’ |
ऐसी, ‘अमन की देवी’ पर, ‘बदनज़र’ पड़ी है किसकी ??
‘धीरे धीरे ‘आँसू’ रिसते, ‘नयन’ हो गये गीले-
‘मानवता’ को ‘दर्द’ हुआ ज्यों, दुखा हो कोई ‘छाला’ ||
बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !
‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||१||
‘लाज की हिरणी’ तड़फ़ तडफ कर, लेती ‘अन्तिम साँसें’ |
डसने को ‘वासना की नागिन’, आई इसे कहाँ से ??
‘संयम’ टूट गया, ‘धीरज’ ने अपनी ‘करवट’ बदली –
लिख न जाये ‘इतिहास’ में ‘खूनी पृष्ठ कोई काला’ ||
बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !
‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||२||
अब नारी की ‘सहन-शक्ति’ की ‘बन्धन-डोरी’ टूटी |
‘अबला’ है वह, ‘बात पुरानी’ हुई है सारी झूठी ||
पाकर ‘अतिशय चोट’ हिली है इस ‘धरती’ की काया’-
लगता है, अब ‘प्रलय’ यहाँ पर निश्चय आने वाला ||
बाहर कितनी ‘ठण्ड’, ’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !
‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘अग्नि’ को पाला ||३||
‘आग के दरिया’ ने सींचे है, ‘खिले बगीचे सारे’ |
‘चिनगारी’ बन गयीं हैं ‘कलियाँ’, औ “प्रसून” ‘अंगारे’ ||
इस ‘विकास के दौर’ में अन्तर ‘बात’ समझने में है –
हम ने इस को ‘लपट’ कहा है, तुमने कहा ‘उजाला’ ||
बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !
‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||४||
‘पुरखों ने जो बाग यहाँ थे सुन्दर कई लगाये |
इनमें धोखे से ‘विष वाले’, “प्रसून” कुछ उग आये ||
इनके ‘ज़हरीलेपन’ से हम कितने हुये विकल हैं-
जिसने इनका ‘स्वाद’ चखा है, ‘काल’ का हुआ ‘निवाला’ ||
बाहर कितनी ‘ठण्ड’,’हृदय’ में धधकी है ‘ज्वाला’ !
‘काल’ ने अपने ‘आँचल’ में ज्यों ‘आग’ को है पाला ||५||
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bahut hi acha likha hai .. very nice
ReplyDeleteNav-Varsh ki shubhkamnayein..
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